मेरी पहली पोस्ट "फ़र्क पडता है" :- मनीषा


आज सोचा ब्लागिंग की शुरुआत की जाए, हिन्दी से जो जुडाव टूट चुका है उन टूटी हुई कडियों को शायद जोडनें का कोई माध्यम ही मिल जाए। आज देव जी के कहनें के बाद हिन्दी ब्लागिंग शुरु कर रहीं हूं। 

आज पहली प्रस्तुति के रुप में कुछ लाईनें विष्णु नागर जी की कविता "फर्क पड़ता है" से.....  

मौसम बदलता है तो फर्क पड़ता है 
चिडिया चहकती है तो फर्क पड़ता है 
बेटी गोद में आती है तो फर्क पड़ता है 
किसी का क‍िसी से प्रेम हो जाता है तो फर्क पड़ता है 
भूख बढ़ती है, आत्‍महत्‍याएं होती हैं तो फर्क पड़ता है 
आदमी अकेले लड़ता है तो भी फर्क पड़ता है 

आसमान में बादल छाते हैं तो फर्क पड़ता है 
आंखें देखती हैं, कान सुनते हैं तो फर्क पड़ता है 
यहां तक कि यह कहने से भी आप में और दूसरों में फर्क पड़ता है 
कि क्‍या फर्क पड़ता है!

जहां भी आदमी है, हवा है, रोशनी है, आसमान है, अंधेरा है
पहाड़ हैं, नदियां हैं, समुद्र हैं, खेत हैं, पक्षी हैं, लोग हैं, आवाजें हैं
नारे हैं
फर्क पड़ता है 

फर्क पड़ता है 
इसलिए फर्क लाने वालों के साथ लोग खड़े होते हैं
और लोग कहने लगते हैं कि हां, इससे फर्क पड़ता है।

बस तो फ़िर आज से ब्लागिंग शुरु..... देखते हैं की इससे क्या फ़र्क पडता है। 

-मनीषा