आज का डिनर दाल-बाटी.... (बनानें की विधी के साथ)

आज देव बाबू सुबह से कुछ स्पेशल खानें की डिमाण्ड कर रहे थे, सोचा की चलो आज दाल-बाटी बनाई जाए.... लीजिए बनानें की विधि पढिए पहले..

आवश्यक सामग्री

बाटी के लिए- 2 कप गेहूं का आटा,1 टेबलस्पून रवा, 2 टेबल स्पून घी, नमक स्वाद के लिए। 
दाल के लिए- 1/2 कप हरी मूंग की दाल, 1 टेबलस्पून चना दाल, 1 टेबलस्पून घी, 1/2 टेबल स्पून गरम मसाला, 1 टेबलस्पून लाल मिर्च पाउडर, 1 टेबलस्पून घनिया पाउडर, 1/4 टेबलस्पून हल्दी पाउडर, आघ कटा नींबू, हरा घनिया कटा हुआ, अदरक बारीक कटा हुआ, 1/2 टेबलस्पून जीरा व राई दाना, दो कप पानी।

विधि: दाल बनाने के लिए दोनों दालों को साथ में मिलाकर कुकर में डालें और नमक व हल्दी डालकर एक कप पानी के साथ उबालें। उघर सभी मसालों का पेस्ट बनाने के लिए आघा कप पानी में मिलाकर रख दें। अब एक कड़ाही में घी डालें व गर्म करें। सबसे पहले इसमें जीरा व सरसों दाना डालें। जब ये चटकने लगे तब बारीक कटा हुआ अदरक डालकर मसालों का पेस्ट एड करें। कुछ देर के लिए भूनें व उबली हुई दाल मिला दें। बाद में नींबू का रस मिलाएं। कटे हुए हरे घनिए से गार्निश करें। गेहूं के आटे में रवा और घी को अच्छी तरह से मिलाएं। गर्म पानी से मिश्रण को एकदम कड़ा गूथ लें और छोटी छोटी लोई बना लें। तंदूर या ओवन को अच्छे से गर्म करें। फिर इसमें लोईयों को हल्की आंच पर तब तक भुनने दें जब तक कि यह ब्राउन न हो जाएं। अवन से निकालकर लोई को साफ कपड़े में रखकर हल्का सा दबाएं और इसे देसी घी में डुबोएं और फिर इससे निकालकर गर्मागर्म दाल के साथ परोसें....


अब लीजिए देव बाबू ने कुछ फ़ोटुआ हैंचे हैं.... देखिए..... 




:-मनीषा

मेरी पहली पोस्ट "फ़र्क पडता है" :- मनीषा


आज सोचा ब्लागिंग की शुरुआत की जाए, हिन्दी से जो जुडाव टूट चुका है उन टूटी हुई कडियों को शायद जोडनें का कोई माध्यम ही मिल जाए। आज देव जी के कहनें के बाद हिन्दी ब्लागिंग शुरु कर रहीं हूं। 

आज पहली प्रस्तुति के रुप में कुछ लाईनें विष्णु नागर जी की कविता "फर्क पड़ता है" से.....  

मौसम बदलता है तो फर्क पड़ता है 
चिडिया चहकती है तो फर्क पड़ता है 
बेटी गोद में आती है तो फर्क पड़ता है 
किसी का क‍िसी से प्रेम हो जाता है तो फर्क पड़ता है 
भूख बढ़ती है, आत्‍महत्‍याएं होती हैं तो फर्क पड़ता है 
आदमी अकेले लड़ता है तो भी फर्क पड़ता है 

आसमान में बादल छाते हैं तो फर्क पड़ता है 
आंखें देखती हैं, कान सुनते हैं तो फर्क पड़ता है 
यहां तक कि यह कहने से भी आप में और दूसरों में फर्क पड़ता है 
कि क्‍या फर्क पड़ता है!

जहां भी आदमी है, हवा है, रोशनी है, आसमान है, अंधेरा है
पहाड़ हैं, नदियां हैं, समुद्र हैं, खेत हैं, पक्षी हैं, लोग हैं, आवाजें हैं
नारे हैं
फर्क पड़ता है 

फर्क पड़ता है 
इसलिए फर्क लाने वालों के साथ लोग खड़े होते हैं
और लोग कहने लगते हैं कि हां, इससे फर्क पड़ता है।

बस तो फ़िर आज से ब्लागिंग शुरु..... देखते हैं की इससे क्या फ़र्क पडता है। 

-मनीषा